वांछित मन्त्र चुनें

हन्ता॑ वृ॒त्रं दक्षि॑णे॒नेन्द्र॑: पु॒रू पु॑रुहू॒तः । म॒हान्म॒हीभि॒: शची॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hantā vṛtraṁ dakṣiṇenendraḥ purū puruhūtaḥ | mahān mahībhiḥ śacībhiḥ ||

पद पाठ

हन्त॑ । वृ॒त्रम् । दक्षि॑णेन । इन्द्रः॑ । पु॒रु । पु॒रु॒ऽहू॒तः । म॒हान् । म॒हीभिः॑ । शची॑भिः ॥ ८.२.३२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:32 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:32


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

वही महादेव है, यह उपदेश देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमात्मा (दक्षिणेन) बल से (वृत्रम्+हन्ता) अविवेक का हनन करनेवाला है और (पुरु) बहुत प्रदेशों में (पुरुहूतः) बहुत ज्ञानी पुरुषों से पूजित और आहूत है। तथा (महीभिः) महती (शचीभिः) शक्तियों और कर्मों से (महान्) सर्वश्रेष्ठ है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जिस हेतु वह सर्वविघ्नविनाशक, सर्व विद्वानों से सुपूजित और स्वशक्तियों और स्वकर्मों से महान् देव है। अतः हे मनुष्यो ! उसी की शरण जाओ और तुम भी संसार के विघ्न निवारण करने में यथाशक्ति प्रयत्न करो और अपने सदाचारों से महान् बनो ॥३२॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) वही परमैश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगी (वृत्रं) सन्मार्ग के वारयिता को (दक्षिणेन, हन्ता) चातुर्य्ययुक्त कर्मों से हनन करनेवाला (पुरु) अनेक स्थलों में (पुरुहूतः) बहुत मनुष्यों से आहूत (महीभिः) बड़ी (शचीभिः) शक्ति से (महान्) पूज्य हो रहा है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - वह महान् ऐश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगी, जो सन्मार्ग से च्युत पुरुषों को दण्ड देनेवाला और श्रेष्ठों की रक्षा करनेवाला है, वह सब स्थानों में पूजा जाता अर्थात् मान को प्राप्त होता है और सब प्रजाजन उसी की आज्ञा में रहकर मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त होते हैं ॥३२॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

स एव महादेवोऽस्तीत्युपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - वृत्रं हन्ताऽस्ति=वृणाति वृणोति वा आच्छादयति ज्ञानमिति वृत्रोऽविवेकः तं वृत्रमज्ञानम्। दक्षिणेन=दक्षेण बलेन। हन्ता=हननकर्त्ता। हन्ते स्तृन् प्रत्ययः। न लोक़ाव्ययेति षष्ठीप्रतिषेधः। सर्वविघ्नविनाशक इत्यर्थः। पुरु=पुरुषु बहुषु। सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लोपः। पुरुहूतः=पुरुभिर्बहुभिर्हूतः पूजितः। पुनः। महीभिः=महतीभिः। शचीभिः=कर्मभिः शक्तिभिश्च। महान् इन्द्रोऽस्ति ॥३२॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) सः एव परमैश्वर्य्यसम्पन्नः कर्मयोगी (वृत्रं) वारयितारं सन्मार्गस्य (दक्षिणेन, हन्ता) चातुर्ययुक्तेन कर्मणा हननशीलः (पुरु) बहुषु स्थलेषु (पुरुहूतः) बहुभिर्हूतः (महीभिः) महतीभिः (शचीभिः) शक्तिभिः (महान्) पूज्योऽस्ति ॥३२॥